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Friday, December 31, 2021

"Amrit Mahotsav" of Independence Vs "Silver Jubilee" of PESA

 "Amrit Mahotsav" of Independence Vs "Silver Jubilee" of PESA

A contrast for tribals of fifth schedule areas 

This year and the year after the central government is celebrating Amrit Mahotsav of Independence. It would be 75 years of India’s independence on 15th August 2022. People residing in Fifth Schedule Areas of the country are also celebrating this Amrit Mahotsav by participating in various programs being organized. However, there is another reason for them to celebrate apart from this. The Provisions of the Panchayats (Extension to the Scheduled Areas) Act, 1996 (fondly known as PESA Act), turns 25 on December 24, 2021. Therefore the Adivasis have dual occasion to celebrate: Amrit Mahotsav along with the Silver Jubilee of PESA Act.

Every festival is an occasion for happiness. But there is apprehension and fear in the minds of people of fifth schedule areas regarding this Amrit Mahotsav and Silver Jubilee. A recurring question for them is, "should we celebrate or not?" Have these two festivals really brought prosperity or are they occasions to ridicule them after gradually handing over their water-forest-land resources in private hands?

If we look at 75 years of independence, till date none of the innocent people living in the forests have been able to understand any of the provisions and laws written throughout the history of these democratic years. Why so? Because the tribal community does not have any system of written constitution and law. They follow unwritten constitution and laws through their oral traditions. However when they look through hundreds of written laws passed by successive governments in the last 75 years which touches upon the unwritten laws of water, forest, land, culture and livelihood of the tribal, the only name that comes to their mind is PESA.

PESA, which came into force on December 24, 1996, on its silver jubilee today is providing everyone with an opportunity to ponder whether the freedom that everyone got 75 years ago also got fully extended to the tribal and the residents of the Fifth Schedule areas. Or rather it is an opportunity to ponder about the ways and means through which the freedom enjoyed in the past has also been slowly being snatched away from them through successive skullduggery of every government that ruled this country.

In the last 25 years of enactment of PESA out of 10 states of central India, where it is applicable, its rules have not framed for Chhattisgarh, Madhya Pradesh, Odisha and Jharkhand. It is a matter of wonder how the law, whose rules have not been made, would have been implemented in these states in last 25 years. For rest of the states too, the rules have been framed only in the last decade. The central government and the state governments should answer on what they have done for last 25 years in absence of rules.

It is therefore imperative for us to raise at least 25 questions from our side for these last 25 years. Both the central and state government will have to answer these. Perhaps while answering them, they would be able to reflect on what steps they have taken so far to make Panchayati Raj system an autonomous institute of self governance as written in Article 40 of the Constitution. If the governments are not able to answer then we are bound to doubt their intentions. 

For last 25 years, the tribal society and every society living in the Fifth Schedule areas has been fooled by governments who have toyed around with the idea of PESA. These societies now need to fight their own battle on the road, in the panchayats, in the state assemblies and in the Parliament along with a parallel fight in the courts to realize their constitutional rights enshrined in PESA.  Else for the next 25 years again they will again be toyed around with in the process and there wouldn’t be any Fifth Schedule Areas left in next 25 years which this humane law intends to protect. 


Ashwani Kange

Social Thinker 

Kanker, Chhattisgarh Mo.7000705692

 

Tuesday, December 28, 2021

आजादी का “अमृत महोत्सव” बनाम पेसा की “रजत जयंती

 आलेख


*आजादी का “अमृत महोत्सव” बनाम पेसा की “रजत जयंती”*


इस साल और अगले साल केंद्र सरकार आजादी का अमृत महोत्सव मना रही है. 15 अगस्त 2022 को भारत की आजादी के 75 साल हो रहे हैं. इस अमृत महोत्सव में छत्तीसगढ़ के पांचवी अनुसूची क्षेत्रों के आमजन भी अलग अलग अवसरों में सहभागी बनते आ रहे हैं. अमृत महोत्सव के साथ उनके लिए उत्सव का एक और कारण है. जल-जंगल-जमीन का अधिकार देने वाला पेसा  कानून 24 दिसंबर 2021 को 25 साल का हो रहा है. इसलिए आदिवासियों के पास अमृत महोत्सव और रजत जयंती मनाये जाने का विषय एक साथ है. 


हर उत्सव खुशी का होता है, पर इस अमृत महोत्सव और रजत जयंती को ले कर पांचवी अनुसूची क्षेत्रो के लोगो के मन में आशंका है. थोडा डर भी है. सवाल है कि, “हम उत्सव मनाये की नहीं?” क्या यह दोनों उत्सव आम जनता की के लिए सच में खुशहाली लाये है या फिर उनके जल-जंगल-जमीन को धीरे-धीरे निजी हाथों में दिए जाने की ख़ुशी में पांचवी अनुसूची क्षेत्र के लोगो का उपहास उड़ा रहे है?


आजादी के 75 साल को देखे तो लोकतांत्रिक व्यवस्था में जिस प्रकार हर प्रावधान और कानून लिखित में होता है वो आज तक जंगल में रहने वाले भोले-भाले लोगो को समझ नहीं आ पाया है. ऐसा क्यों? क्योंकि आदिवासी समुदाय का लिखित संविधान और कानून नहीं होता है. वह तो अलिखित संविधान से चलते है. लेकिन जब हम खोजते है कि पिछले 75 साल में सरकारों के सैकड़ो लिखित कानूनों में ऐसा कौन सा कानून है जो आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन, संस्कृति और जीवन यापन के अलिखित कानूनों को समेटे हुए है तो एक ही नाम सामने आता है “पेसा कानून.”  और दूसरा RoFRA ये दोनों कानून एक दूसरे के पूरक है इसको दोनो को एक साथ ही देखना चाहिए। 


सन 1996 की 24 दिसंबर से लागू यह पेसा कानून हमारे लिए आज यह चिंतन करने का अवसर दे रहा है कि क्या आजादी के 75 साल बाद भी जो स्वतंत्रता और आजादी सभी को मिली थी क्या वह आदिवासियों और पांचवी अनुसूची क्षेत्र के निवासियों को भी पूर्ण रूप से मिली है या पूर्व की आजादी भी उनसे धीरे-धीरे छिनती जा रही है.क्या इस क़ानून के जरिये उपलब्ध संसाधनों को पूंजीवाद की व्यवस्था में लेकर जा रहे हैं। ऐसे कई सवाल हमारे सामने है।


पेसा कानून के लिए 25 साल में अब तक मध्य भारत के 10 राज्यों में जहाँ यह कानून लागू होता है उसमे से छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, ओडिशा और झारखण्ड में नियम ही नहीं बने हैं. जिस कानून के नियम ही नहीं बने हो वह कानून 25 सालों में कैसे चला होगा यह सोचने का विषय है. केंद्र सरकार और राज्य सरकार इस पर जवाब दे कि 25 सालों तक उन्होंने क्या किया है. 


इन 25 सालों के लिए हमारी ओर से 25 सवाल तो खड़े करना तो लाजमी है. इन सभी के जवाब तो केंद्र और राज्य सरकार दोनों को ही देने होंगे. शायद इनका जवाब देते हुए वह इस बात पर चिंतन कर पाए कि संविधान के अनुच्छेद 40 में लिखित पंचायती राज व्यवस्थाओं को स्वायत्त इकाई बनाने के लिए सरकार ने अब तक क्या कदम उठाये हैं. क्या उन्होंने ग्राम सभा और पंचायतो को स्वशासन की इकाई बनने के लिए कुछ पहल की है या उनके पूर्व में चले आ रहे स्वशासन को छीनने का काम किया है?


अगर सरकार इस बात का जवाब नहीं दे पाती है तो हमें उनके नियत पर शक करना लाजमी है. 25 साल तक पेसा के झुनझुना से आदिवासी समाज और पांचवी अनुसूची क्षेत्र में रहने वाला हर समाज खेलता रहा है. अब समाज को कानून के साथ साथ व्यस्क हो कर अपने अधिकार पाने के लिए सड़क से संसद तक और साथ साथ कोर्ट में अपनी लड़ाई लड़नी होगी, नहीं तो अगले 25 साल के लिए फिर पेसा के नाम का झुनझुना के साथ लालीपॉप पकड़ा दिया जायेगा.

वर्तमान में छत्तीसगढ़ केबिनेट और TAC ने छत्तीसगढ़ के पेसा नियम 2022 को पास किया हैं  और 8 अगस्त 22 को अधिसूचित हो गया है अभी देखना होगा कि यह नियम किस तरह से गांव में स्वशासन दिला पायेगा?? और गाँव समाज गांव सरकार की परिकल्पना को कैसे साकार कर पायेगा? 


*पेसा की चुनौतियों और जोखिम*  पर अगला लेख क्रमशः....


अश्वनी कांगे 

7000705692

सामाजिक चिंतक कांकेर, छत्तीसगढ़ ,

संस्थापक सदस्य-

KBKS, NSSS, SANKALAP, KOYTORA,

पूर्व जिला अध्यक्ष-अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद कांकेर।

पूर्व ब्लॉक अध्यक्ष - गोण्डवना युवा प्रभाग ब्लॉक चारामा, जिला कांकेर।

पूर्व प्रांतीय उपाध्यक्ष, सर्व आदिवासी समाज छत्तीसगढ़, युवा प्रभाग।

कोर ग्रुप सदस्य, गोंडवाना समाज समन्वय समिति बस्तर संभाग।

वर्किंग ग्रुप सदस्य, सब ग्रुप, छत्तीसगढ़ योजना आयोग 

Organizer- All India Adivasi Employees Federation,(AIAEF) Chhattisgarh

ashwani.kange@gmail.com 




पेसा की रजत जयंती पर उत्सव, चिंता और चिंतन

 


आलेख


सामाजिक समरसता का प्रतीक पेसा कानून


पेसा की रजत जयंती पर उत्सव, चिंता और चिंतन


(24 दिसम्बर 2021 पेसा की रजत जयंती पर विशेष)


पेसा अधिनियम की रजत जयंती पर आज बड़ी दुविधा में हूं. दुविधा इस बात की है कि मैं इसके युवावस्था का उत्सव मनाऊ, इसकी जो दुर्गति लगातार हुई है उसकी चिंता करू या इसके क्रियान्वयन को बेहतर कैसे कर सकते है उस पर चिंतन करूं.


उत्सव का विषय यह है कि यह कानून आज भी प्रासंगिक है. बीते 25 साल में पांचवी अनुसूची क्षेत्र के मुद्दे वही हैं जो इस कानून में लिखे हुए है. इन क्षेत्रों के जल-जंगल-जमीन के अधिकार. उनकी रीति-नीति-परंपरा के अनुसार अपनी पंचायती राज व्यवस्था को बनाना. ग्राम सभा और पंचायतो को स्वशासन और स्वायत्तता की ओर अग्रसर करना. गांव में अपना राज स्थापित करना. पेसा ही ऐसी कड़ी है जो सम्पूर्ण पांचवी अनुसूची क्षेत्रो को एक धागे में पीरोती है और लोगो को एक दूसरे से जोडती है.   


चिंता लेकिन मुझे इस बात की है कि कानून का इतना बढ़िया ढांचा होने के बाद भी इसकी दुर्गति का कारण क्या है. छत्तीसगढ़ में आज भी इसका नोडल विभाग स्पष्ट नहीं है. आज भी इसके लिए नियम बनाए जाने की प्रक्रिया जारी हैं. आज भी इसको लागू करने के लिए मैदानी अमला मौजूद नहीं है. इसकी निगरानी करने के लिए समीक्षा बैठक तक नहीं होती है. इन सबसे बड़ी चिंता का विषय है की 25 साल बाद भी समाज और सरकार का बड़ा वर्ग इसकी मूल भावना को समझ नहीं पाया है.  


यही चिंता ही मुझे इस चिंतन की ओर ले जाती है कि कहाँ इसके क्रियन्वयन में कमी रह गयी है. पेसा में ऐसा क्या है जिससे राजनीतिक और सरकारी व्यक्ति इस पर बात करने से भी डरते है? क्यों सभी समाज को लगता है कि पेसा के पूर्ण रूप से लागू होने से आदिवासी समाज ही सारे अधिकार पा जायेगा? 


इन सभा धारणाओं और गलत व्यख्यायों को दूर करने की जरूरत है. कही-सुनी बातों से ज्यादा अधिनियम और नियम को पढ़कर समझने की जरूरत है. चूँकि संविधान का अनुच्छेद 40 ग्राम सभा/पंचायतों को स्वयात्त शासन की इकाई के रूप में देखता है यह स्वायतत्ता सविधान के अनुच्छेद 243ड. के अंतर्गत पांचवी अनुसूची क्षेत्रों में पेसा कानून में बताये गए अपवादों और उपन्त्रणों के जरिये से ही हो सकती है. इसी के तहत संविधान की 11 अनुसूची के 29 विषय जिसमे शिक्षा, स्वास्थ्य, सडक, पानी, बिजली, विकास के समस्त कार्य सहित समीक्षा, नियंत्रण तथा स्वशासन शामिल है यह सब भी पांचवी अनुसूची क्षेत्रो में पेसा के माध्यम से ही संचालित होता है. पेसा के अलावा और कोई दूसरा कानून अभी वर्तमान में विद्यमान नही है जिसके माध्यम से इनका क्रियान्वयन किया जा सके.



पेसा को पढ़ते वक्त मूल रूप से इस बात का ध्यान रखना है कि यह पांचवी अनुसूची क्षेत्रो में रहने वाले सभी लोगों को ग्राम सभा और पंचायत के माध्यम से सशक्त करता है. यह किसी वर्ग विशेष को लाभ नहीं पहुंचता है और ना ही सिर्फ यह आदिवासी समाज के लिए बनाया गया कानून है. 


छत्तीसगढ़ पंचायत राज अधिनियम की धारा 129 (e)(3) को ठीक से पढेंगे तो पाएंगे की पंचायती राज व्यवस्था और पेसा में अनुसूचित जाति (SC) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए भी आरक्षण है. जहाँ सरपंच/अध्यक्ष के पद अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं वहां उपसरपंच/उपाध्यक्ष के पद SC अथवा OBC के लिए आरक्षित है. पेसा इसलिए समाज के वर्ग में भेद नहीं कर रहा है और सभी को अनेक रूप से अवसर दे रहा है. 


पेसा जहाँ पर भी रूढी परंपरा की बात करता है तो किसी वर्ग विशेष की रूढी परंपरा पर जोर नहीं देता है बल्कि पांचवी अनुसूची क्षेत्रों में निवासरत सभी समाजों की रूढी परंपरा को सुरक्षित और संरक्षित करने के लिए ग्राम सभा को शक्ति देता है और उन्हें सक्षम बनाता है.  


गाँधी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना को साकार करते हुए सत्ता का विकेंद्रीकरण जरूर हुआ पर शक्तियों और संसाधनों का विकेंद्रीकरण कोई सरकार/शासन नहीं चाहती. केंद्रीकृत व्यवस्था से सारा लाभ कुछ गिने-चुने लोगो के हाथ में जा रहा है जिससे मुक्ति पाने का रास्ता दिखाता है पेसा. आजादी के बाद भी दोयम दर्जे की जिंदगी बिताने के लिए मजबूर पांचवी अनुसूची के क्षेत्रों के निवासियों के लिए एक उम्मीद है पेसा. 


इसलिए पेसा कानून को पूर्ण रूप से लागू करना सभी समाज के हित में है, सभी पार्टियों के हित में है, सभी संगठनों के हित में है, सिवाय कुछ पूंजीपति और राजनीतिक वर्ग के लोगो के जो सत्ता और संसाधन को अपनी मुट्ठी में बंद रखना चाह रहे हैं. 


इस बंद मुट्ठी को खोलने का आज 25 साल बाद हमारे लिए मौका है. इसके लिए हम सभी को पूरी ताकत लगानी होगी. हमारे विषमताओं और भिन्नताओं के बावजूद हमें साथ आना होगा. अपनी अलग अलग आदिवासी वर्ग की पहचान से, अपनी SC, OBC, दलित की पहचान से ऊपर उठ कर हमें गाँव के रूप में, पांचवी अनुसूची क्षेत्रों के रूप में एक होना होगा. तब ही बन पायेगा हमारा गाँव गणराज्य, तब ही हो पायेगा मावा नाटे - मावा राज, तब ही होगा हमारे गाँव में हमारा राज, तब ही होगा अबुआ दिशुम - अबुआ राज और तब ही बन पायेगी अपने गाँव में अपनी सरकार.

पेसा में बहुत सारे अधिकार की बात कही गई है इन 25 सालों में क्या स्थिति है, सब जानते हैं।गांव जागरूक नही होने, और सरकारी अमला में स्पष्ट जानकारी का अभाव  के चलते  संसाधनों का विदोहन किस कदर हो रहा है,  सरकारी अमला कभी धारा 3 और 4 तथा 5 को पढ़ते ही नही हैं।

इसलिए मेरा आव्हान है की पांचवी अनुसूची क्षेत्रों के सभी लोग इस पच्चीसवीं वर्षगांठ पर पेसा को पूर्ण रूप से लागू करने के लिए आगे आये. इसे कोई दूसरा लागू नहीं करेगा. कोई सरकार नहीं करेगी. इसे हमें खुद करना होगा. ग्राम सभा सदस्य के रूप में, पंच/सरपंच के रूप में, जनपद/जिला पंचायत के सदस्य/अध्यक्ष/उपाध्यक्ष के रूप में. हमें खुद अपने गाँव में गाँव सरकार बनानी होगी और अपनी सामाजिक, धार्मिक, रूढी, परंपरा, को जिन्दा करना होगा. तब जा के हमारे पुरखो की विरासत को पेसा के कानूनी ढाँचे के माध्यम से हम संभाल पाएंगे.  




अश्वनी कांगे 

7000705692

सामाजिक चिंतक कांकेर ,

KBKS, छत्तीसगढ़  

 ashwani.kange@gmail.com