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Monday, July 18, 2022

एक कदम.... गाँव की ओर.... #ग्रामसभा #सशक्तिकरण

#KBKS
एक कदम......
                    गाँव की ओर...
ग्राम सभा सशक्तिकरण अभियान

#गाँव गणराज्य भारत का पुरातन परंपरा रही है. इसके लिए आदिवासी इलाकों में बहुत लम्बे समय से #बिरसा मुंडा , गूंडाधुर,तिलका माझी,सिद्धू-कान्नू इत्यादि अनगिनत शहीदों ने अंग्रेजी राज़ स्थापित होने के बाद भी संघर्ष लगातार चलाते  रहे।गांधीजी की सात लाख गाँव गणराज्यों के महासंघ  के रूप में आज़ाद भारत की कल्पना और उसके निर्माण के लिए संकल्प देश के आम जनता  के मन में सच्चे #लोकतंत्र के प्रति गहरी आस्था  को जगाया था। उसी भावना को मूर्तरूप देने हेतु #संविधान में  गाँव के स्तर पर पंचायतों की स्थापना के लिए #अनुच्छेद 40 का प्रावधान किया गया। हमारे संविधान के अनन्य महान शिल्पकार #डॉ भीमराव आंबेडकर ने उस  प्राचीन व्यवस्था को अंगीकार करते हुए बौध भिक्षु संघों में और उसके भी पहले  भारत के  अनेक गणराज्यों की #लोकतान्त्रिक परंपरा के साथ-साथ आज की विसंगितियों की ओर ध्यान आकर्षित किया था . संविधान में केंद्रीकृत व्यवस्था और गाँव गणराज्य की  विकेन्द्रिकृत व्यवस्था की  मान्यताओं के बीच के विरोधाभास को  #संविधान सभा के सभापति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने खुले तौर पर स्वीकार किया था. यही नहीं आदिवासी इलाकों के लिए जवाहरलाल नेहरु के #पंचशील नीति का आधार तत्व उस दिशा में एक पहल कदमी थी. सार तत्व यही था की राज्य व्यवस्था #संप्रभु (Sovereign) होते हुए भी सहभागी संप्रभुता (Shared Sovereignty) सिद्धांत को मान्य कर कार्य करेगा .
 
लेकिन यह खेदजनक ऐतिहासिक  सच्चाई है कि गाँव गणराज्य की मूल चेतना अंधाधुंध   विकास की यात्रा में अनदेखी रह गयी। खास तौर पर आदिवासी इलाकों में स्थानीय परंपरागत se- सामाजिक व्यवस्था और राज्य औपचारिक तंत्र के बीच की विसंगति  गहराती गयी। वहां टकराव जैसी स्थिति बनती गयी। इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के समाधान के लिए 1976  में श्रीमती इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में आदिवासी इलाकों के लोकतान्त्रिक विकास के लिए एक व्यापक योजना तैयार की गयी थी। उसमें परंपरागत व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए #5वी  अनुसूची के प्रावधानों को प्राथमिकता के आधार पर कार्यरूप देने का फैसला किया गया था .उसके अनुसार देश के सभी आदिवासी बहुल क्षेत्रों को अनुसूचित कर उन इलाकों में शोषण की समाप्ति ,समाज के #सशक्तिकरण और आर्थिक विकास की त्रि – सूत्री कार्यक्रम को उसी प्राथमिकता के अनुसार कारगर रूप से लागु किया जाना था। यह योजना भी फिर से विकास की दौड़ के आप धापी और पीछे रह गयी। अस्सी के दशक में देश की बिगड़ती हालत की समीक्षा में पंचायतों की उपेक्षा उस बदहाली के लिए एक प्रमुख कारण के रूप में सामने आई, तो पंचायत राज को संविधान में स्थापित करने का संकल्प लिया गया। इस  सिलसिले में आदिवासी परंपरा और राज्य की व्यवस्था के बीच गहराती विसंगति और बढ़ते टकराव की बात भी सामने आई, जिसका मुख्य कारण था, आदिवासी इलाकों में #पाँचवीअनुसूची के प्रावधानों  का ईमानदारी से अमल ना होना ।
 
इस चुनौती से मुकाबला करने के लिए आदिवासी परंपरा से संगत व्यवस्था स्थापित करने के लिए पुराना संकल्प दोहराया गया और 73वा संविधान संशोधन में अनुसूचित क्षेत्रों को सामान्य पंचायत व्यवस्था से बाहर रखने के लिए फैसला किया गया। पंचायतों के लिए संविधानिक प्रावधानों को ज़रूरी अपवादों और संशोधनों के साथ अनुसूचित क्षेत्रों में लागु करने की तारतम्य में संसद ने पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार)अधिनियम बनाया, जो देश के सारे अनुसूचित क्षेत्रों पर 24 दिसम्बर 1996 में लागू हो गया।
 
इस कानून में ग्रामसभा को स्वयम्भू गाँव समाज के औपचारिक रूप में स्थापित किया गया। इसमें ग्रामसभा को अधिकार देने की बात जो असली लोकतंत्र की भावना के खिलाफ है नहीं की गयी, उसकी बजाए गाँव के स्तर पर ग्रामसभा सभी तरह के कामकाज को अपनी परंपरा के अनुसार करने के लिए सक्षम है इस सहज परन्तु बुनियादी बात को नयी कानूनी व्यवस्था में औपचारिक रूप से मान्य करते हुए शामिल किया गया। #पेसा अधिनियम में सुधार की गुंजाइश होते हुए भी, आदिवासी शहीदों के अरमानों और गांधीजी के सपनों का गाँव गणराज्य की स्थापना की दिशा में पहला निर्णायक कदम है।
 
आदिवासी मामलों में छत्तीसगढ़ का हमारे देश में विशिष्ट स्थान है . पूरे छत्तीसगढ़ के  भू –भाग का करीब 60 प्रतिशत पर फैला अनुसूचित क्षेत्र है . राज्य की व्यवस्था का व्यावहारिक रूप तो लोगों के सामने प्रशासनतंत्र  की  विभिन्न संस्थाएं ,उनमे काम करने वाले नौकरशाहों के व्यवहार और उनको संचालित करने  वाले नियम कानून के रूप में आता है। अपनी परंपरा के अनुसार काम करने की व्यवस्था में इस केंद्रीकृत व्यवस्था का  पूरा नक्शा उलट जाना स्वाभाविक है। पेसा नियम में प्रावधानित नयी व्यवस्था में यह साफ है कि सभी संस्थाएं और उनके कर्मचारी ग्रामसभा के प्रति ज़िम्मेदार होंगे , केंद्र और राज्य में बने नियम कानून ग्रामसभा के लिए , सहभागी लोकतंत्र की बुनियादी इकाई की गरिमा के अनुरूप  बाध्यकारी न हो कर मार्गदर्शक ही हो सकते है।
 
परन्तु इसमें सबसे बड़ी चुनौती यही है कि राज्य सत्ता से जुड़े नेतृत्व, विभागीय  अधिकारी एवं कर्मचारीगण, पंचायत सदस्यों  को इस कानून- नियम को आत्मसात करने के लिए बड़ा कदम उठाना होगा तथा गाँव के लोग इस परिवर्तनकारी वदलाव को समझे ।#ग्रामसभा की गरिमामयी भूमिका का एहसास करें और यह बात उनके पास ऐसे लिखित रूप में पहुंचे जिसे वे पढ़कर या सुनकर आत्मविश्वास के साथ अपनी #स्वशासन व्यवस्था का संचालन  अपने हाथ में ले सकें। लेकिन ऐसा हुआ नही। और केंद्रीकृत शासन व्यवस्था और गाँव गणराज्य की  विकेन्द्रिकृत व्यवस्था की  मान्यताओं के बीच के विरोधाभास में राज्य कुछ अधिकार को जो गॉव समाज के हैं, विकेंद्रीकरण करना नही चाहते। पर इस मंशा को एक वर्ष के भीतर सभी नियमि, कानून, आदेश, निर्देश, परिपत्र, विनियम आदि में बदलाव/परिवर्तन जो पेसा संगत नही है, उसे पेसा संगत बनाना। ये बड़ी चुनौती है। इसे सबको स्वीकार करना चाहिए, और इस काम को करने सभी को सभी स्तर पर जुट जाना चाहिए।

एक कदम....
                   गाँव की ओर....

#ग्रामसभा #सशक्तिकरण


अश्वनी कांगे 

7000705692

सामाजिक चिंतक कांकेर, छत्तीसगढ़ ,

संस्थापक सदस्य-

KBKS, NSSS, SANKALAP, KOYTORA,

पूर्व जिला अध्यक्ष-अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद कांकेर।

पूर्व ब्लॉक अध्यक्ष - गोण्डवना युवा प्रभाग ब्लॉक चारामा, जिला कांकेर।

पूर्व प्रांतीय उपाध्यक्ष, सर्व आदिवासी समाज छत्तीसगढ़, युवा प्रभाग।

कोर ग्रुप सदस्य, गोंडवाना समाज समन्वय समिति बस्तर संभाग।

वर्किंग ग्रुप सदस्य, सब ग्रुप, छत्तीसगढ़ योजना आयोग 

Organizer- All India Adivasi Employees Federation,(AIAEF) Chhattisgarh

ashwani.kange@gmail.com