*9 अगस्त : विश्व आदिवासी दिवस*
*याद करो कुर्वानी, तेज़ करो संघर्षों की कहानी!*
*उठो , आदिवासी- भारत के वास्ते -- न्याय, समता, लोकतंत्र और इंसानियत के रास्ते*
*आज भी विरोध-विद्रोह जारी है : विस्थापन, बिखराव विपन्नता और विनाश के विरुद्ध सम्मान, स्वशासन और समता के लिए*
*संसाधन और संस्कृति को जबरन आत्मसात करने की राज्य -पोषित कार्पोरेटी ललक ; भेदभावपूर्ण रवैया और राजकीय दमन के विरुद्ध खड़ा हे श्रमजीवी मूल-निवासी !*
औपनिवेशिक-काल से आज तक संघर्षों का अनगिनत सिलसिला जारी है। ज़मीन और प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण एवं उपयोग को लेकर आदिवासियों ओर राष्ट्रीय सरकारों के बीच टकराव हो रहे हैं। 18वीं शताब्दी के मध्य से भारत में केन्द्रित राज्य व्यवस्था के विरुद्ध आदिवासियों के सामाजिक रणहुंकार के कारण आदिवासी क्षेत्रों में स्वशासी व्यवस्था को कानूनी मान्यता का बीजारोपण हुआ। तब से लेकर 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ की आर्थिक एवं सामाजिक परिषद् द्वारा संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार आयोग को दुनिया भर के आदिवसियों के ऊपर किये जा रहे अन्याय एवं पक्षपातपूर्ण समस्यायों का अध्ययन करने के लिए ज़िम्मेदारी देने तक का सफ़र पूरा हुआ है।
अमेरिकी महाद्वीप में मूल निवासियों के साथ अन्यायपूर्ण भेदभाव पर वर्ष 1977 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रायोजित जिनेवा सम्मेलन में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पूंजी-केन्द्रित दमनकारी राज्य व्यवस्था को चुनौती दी गई। इसके कारण 12 अक्टूबर को मनाए जाने वाला 'कोलंबस दिवस' खारिज हुआ और ‘मूल निवासी दिन‘ का प्रचलन शुरु हुआ, जिस पर 2021 में ही जाकर अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपनी मुहर लगाई है। इस बीच 1982 में स्पेन समेत कुछ यूरोपीय देशों तथा सभी अमेरिकी देशों द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में वर्ष 1992 में क्रिस्टोफर कोलंबस द्वारा अमेरिका की खोज के 500 वर्ष पूरे होने का जलसा मनाने के प्रस्ताव का ज़ोरदार विरोध अफ्रीकी देशों तथा विश्व के आदिवासी समुदायों द्वारा किया गया।
23 दिसम्बर 1994 को संयुक्त राष्ट्र संघ की आमसभा में प्रस्ताव क्रमांक 49/214 पारित किया गया, जिसके ज़रिये अन्तर्राष्ट्रीय मूलनिवासी दशक (1995-2004) का पालन करने की घोषणा करते हुए हर साल 9 अगस्त को अंतर्राष्ट्रीय मूलनिवासी दिवस मनाने का निर्णय लिया गया। यह दिन इसलिए तय किया गया, क्योंकि इसी दिन 1982 में संयुक्त राष्ट्र संघ का 'मानव अधिकारों का उत्थान व सरंक्षण' विषय पर मूलनिवासियों के मानव अधिकारों पर चर्चा हेतु गठित उप-आयोग के वर्किंग ग्रुप की पहली मीटिंग हुई थी। 2005-14 को अंतर्राष्ट्रीय मूलनिवासी दशक घोषित हुआ तथा 13 सितम्बर, 2007 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मूल निवासियों के अधिकारों का महत्वपूर्ण घोषणा पत्र जारी हुआ, जिसके जरिये पहली बार मूलनिवासियों के सामुदायिक अधिकारों (राजनैतिक, कानूनी, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों) एवं स्वनियंत्रण को अंतर्राष्ट्रीय कानूनी भाषा-शास्त्र का हिस्सा बनाया गया।
कुल मिलाकर देखा जाएँ, तो संयुक्त राष्ट्र संघ का मूलनिवासी घोषणा पत्र स्वशासन एवं प्रत्यक्ष लोकतंत्र की प्राथमिकता को प्रतिपादित करता है। भारत के संदर्भ में देखें, तो भारत के संविधान का मूल भावना तथा नेहरूजी द्वारा “आदिवासियों के लिए पंचशील सिद्धांत“ से बहुत हद तक मेल खाता है। इस संबंध में संविधान की 6वीं अनुसूची, 7वीं पंचवर्षीय योजना में स्व -प्रवंध पर जोर, आदिवासियों के भूमि अधिकारों पर भारत सरकार द्वारा नियुक्त समिति की रिपोर्टें, भूरिया समिति रिपोर्ट तथा भूरिया आयोग रिपोर्ट, पेसा तथा वन अधिकार (मान्यता) कानून ; पंचायत राज मंत्रालय द्वारा पूरे देश में पंचायती कानून में सरंचनागत संशोधन हेतु प्रारूप 3 बिल (पूरे देश में प्रत्यक्ष लोकतंत्र का विस्तार), संघ-राज्य संबंधों पर आयोग की सिफारिशों में निहित धारणाएं तथा अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति आयोग की सिफारिशों का उल्लेख किया जा सकता है।
लेकिन यह भी सच है कि राष्ट्र हित (वास्तव में, सत्ता-दलालों के स्वार्थ हित) के नाम पर संसाधनों से धनी आदिवासी बाहुल्य इलाकों से विकास के नाम पर संसाधनों के दोहन के लिए कानूनी व प्रशासनिक प्रक्रियाओं की हेरफेर चलती रही है। 1990 से अपनाई गयी भू-मंडलीकरण-निजीकरण-उदारीकरण की नीति ने तथा 2014 से उस धारा के तीव्र एवं खूंखार ध्रुवीकरण (सांप्रदायिक तथा धन-पिपासु दरबारी कार्पोरेट पूंजी के गठजोड़) ने लोकतंत्र-स्वशासन की अवधारणा को संवैधानिक धरातल पर नेस्तनाबूद किया है और चुनावी-निरंकुशता पर पहुँचकर भारत को गैर-लोकतान्त्रिक आज्ञापालक समाज बनाने के अमृतकाल की ओर धकेल रहा है। विपक्ष द्वारा जनवादी विकल्प पेश करने में असफल होने के कारण किसानों, मजदूरों और जनवादी-सामाजिक घटकों के पक्ष में बनाये गए सारे प्रचलित कानूनों और संवैधानिक व्यवस्थाओं में बदलाव किये जा रहे हैं।
आदिवासी क्षेत्र के लिए स्वशासन कानून (पेसा) तथा वन अधिकार (मान्यता) कानून को अब तक कहीं भी, किसी भी सरकार ने सही रूप से लागू नहीं किया है। अब तो आलम है कि कानून में संशोधन की रास्ता न अपनाते हुए नियमों में ही संशोधन करते हुए कानून को ही निष्प्रभावी बनाने के हथकंडे अपनाये जा रहे है। ताज़ा उदहारण :
वन अधिकार मान्यता कानून को निष्प्रभावी बनाने के लिए तथा वन संसाधनों को निजी पूंजी के हाथ में देने के लिए वन (सरंक्षण) अधिनियम, 1980 की धारा (4) के विरुद्ध जा कर 28 जून, 2022 को नियमों में संशोधन किया गया है, जिसके तहत वन भूमि को डीरिज़र्व, डाइवर्ट तथा लीज देने के पूर्व ग्रामसभा की सहमति की अनिवार्यता की खात्मा किया गया है [नियम 9(6)(ख)] एवं वन अधिकार कानून के तहत दावेदारों को अधिकार देने के पहले एवं आदिवासी अत्याचार अधिनियम का धता बताते हुए गैर-वनीय कार्य के लिए वन भूमि के डाइवर्सन हेतु ग्रामीण सामुदायिक ज़मीन तथा डी-ग्रेडेड वन क्षेत्र को चिन्हित कर क्षतिपूर्ति वनीकरण नाम से लैंड-बैंक (न्यूनतम आकार 25 हेक्टयर का निरंतर ब्लाक; आरक्षित क्षेत्र में कोई भी न्यूनतम आकार नहीं ; ट्री-प्लांटेशन वाली निजी जमीन भी ली जाएगी) बनाया जायेगा, ताकि वन भूमि डाइवेर्सन की प्रक्रिया में तेज़ी लाया जा सके [नियम 11(2)]। इस हेतु संघ सरकार प्रत्यायित प्रतिपूरक वनीकरण तंत्र तैयार करेगी, [नियम 11 (3) (क)]। वन अधिकार तथा वन्यजीव सरंक्षण अधिनयम का हनन करते हुए आरक्षित क्षेत्र (राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य आदि से विस्थापित ग्रामीणों की ज़मीन में वनीकरण करने की अधिकार एजेंसी को प्राप्त होगा, [ नियम 11(च)]। 1000 हेक्टयर से अधिक (वृहद् परियोजना) के लिए वन भूमि डाइवर्सन को सैधांतिक रूप से अनुमति प्रदान किया है। इस स्थिति में चरणवार अनुमोदन का प्रावधान होगा [ नियम 9 (6) (घ)]। भौतिक कब्जा रहित वन क्षेत्र में पेट्रोलियम अन्वेषण लाइसेंस या पेट्रोलियम खनन पट्टे के लिए सरकारी अनुमोदन आसानी से दे दी जाएगी [नियम 9(5)] तथा राजस्व वन या नारंगी वन क्षेत्र के डाइवर्सन के संबंध में जिला कलेक्टर एवं वन अधिकारी के संयुक्त सत्यापन से प्रस्तावकर्ता भूमि की अनुसूची एवं नक्शा प्राप्त कर लेंगे, [नियम 9 (4) (च)]। वन अधिकार मान्यता कानून की धारा 5 तथा नियम 4 (1)(च) का स्पष्ट हनन करते हुए वन वर्किंग प्लान के लिए वन विभाग के आला अधिकारी जिम्मेदार बनाते हुए एक प्रक्रिया के तहत संघ सरकार से पूर्व अनुमोदन लिए जायेंगे, [ नियम 10 ]।
वन अधिकार मान्यता कानून लागु होने के बाद वर्ष 2008 से 2021 तक 3,08,609 हेक्टयर वन भूमि डाइवर्ट हो चुकी है, जिसमें ग्रामसभा की विधि सम्मत सहमति ली नहीं गयी है। अब इन नियमां के बाद न तो पेसा कानून का और न ही वन अधिकार मान्यता कानून का कोई औचित्य बच पायेगा।
*इको-सेंसिटिव जोन* : माननीय सर्वोच्च न्यायलय का 3 जून 2022 का आदेश वन अधिकार मान्यता कानून की धारा 3 (1)(झ) तथा धारा 5 में प्रदत्त ग्रामसभा के प्रबंधन के अधिकार को नज़रंदाज़ करता है और राज्य स्तर पर पीसीसीएफ एवं गृह सचिव के हाथ में सारी शक्तियों का केन्द्रीयकरण करता है। इको-सेंसिटिव जोन के रूप में पर्यावरण सरंक्षण अधिनियम, 1986 के तहत हर आरक्षित क्षेत्र (अभयारण्य, राष्ट्रीय उद्यान इत्यादि) के सीमा से 1 कि.मी अर्धव्यास की दूरी को अधिसूचित क्षेत्र जोन के रूप में घोषित किया जाता है। 9 फरवरी 2011 की गाइडलाइन्स)। लेकिन जोन बनाने का कोई प्रस्ताव है, तो इस क्षेत्र का दायरा 1 कि.मी अर्धव्यास से बढ़कर 10 कि.मी. अर्धव्यास क्षेत्र हो जायेगा। इस जोन में कोई स्थायी सरंचना बनाना प्रतिबंधित है। इस जोन क्षेत्र का दायरा बढ़ाने के लिए सर्वोच्च न्यायलय की अनुमति अनिवार्य होगी।
*जैव-विविधता (संशोधन) बिल, 2021* : जैव-विविधता का सरंक्षण, सतत उपयोग तथा जैव संसाधनों के उपयोग से प्राप्त धनराशि के निष्पक्ष व न्यायसंगत बंटवारा के आधार को ही बदलकर कारपोरेट व्यापार को सहूलियत देने के लिए जैव-विविधता अधिनियम, 2002 में संशोधन किया जाना प्रस्तावित है। इससे जो पारंपरिक रूप से उपयोगी पदार्थों का ज्ञान रखते हैं, उन्हें उन पदार्थों का लाभ न दिलाते हुए,
व्यापार कंपनियों को लाभ पहुंचाया जाएगा तथा इससे वन अधिकार मान्यता कानून की धारा 5 का हनन होगा .
देश में लगभग 2,75,000 जैव विविधता प्रबंधन समितियां हैं, जो जन जैव-विविधता रजिस्टर (पीबीआर) बना चुके हैं और जिनको 2014 की गाइडलाइन्स के तहत एक्सेस एंड बेनिफिट शेयरिंग रेगुलेशन के तहत लाभ में हिस्सेदारी मिलने का कानूनी अधिकार है, [धारा 21 (2)]। साथ ही इस हिस्सेदारी के तहत जैव-संसाधनों के सतत संवर्धन एवं उपयोग के लिए कंपनियों को इसकी लागत में खर्चा वहन करना सुनिश्चित किया गया है।भारत का आयुर्वेद उद्योग सालाना करीब 30,000 करोड़ रुपयों का व्यापार करता है।
संशोधित अधिनियम में “लाभ के दावेदारों“ की परिभाषा बदल कर ‘पारंपरिक ज्ञान-जानकारी से संबंध रखनेवाला धारक ‘(एसोसिएटेड होल्डर्स ऑफ़ ट्रेडिशनल नॉलेज') लाभ के दावेदार के रूप में परिभाषित किया गया है। यहाँ तक कि वे भारतीय लिखित पारंपरिक ज्ञान से अलग होंगे अर्थात आयुर्वेद, यूनानी तथा सिध्दा उपचार पद्धति के उपयोग में आनेवाला पदार्थ, ज्ञान तथा उसकी उत्पादन में लगे लोगों (किसानों, आदिवासियों एवं अन्य परम्परागत वन-निवासियों तथा सारे जैव-विविधता प्रबंधन समितियों द्वारा तैयार की गयी लिखित जानकारी) को लाभ नहीं मिलेगा। इस संशोधन से सारे दवा उद्योग अपने मुनाफे को जैव सरंक्षण-संबर्धन में लगे लोगों-समुदायों को बाँटने से इंकार कर देंगे।
अब तक किसी विदेशी कम्पनी या विदेशी व्यक्ति या किसी भारतीय कम्पनी के किसी विदेशी शेयरहोल्डर को भारतीय जैव-विविधता के संबंध में कोई शोध या व्यापार करने के पहले राष्ट्रीय जैव–विविधता प्राधिकरण से पूर्व अनुमति लेना अनिवार्य है, [धारा 3(2)(ग)]। इस प्रावधान को संशोधित करते हुए प्रस्ताव रखा गया है कि कोई भी विदेशी कंपनी या व्यक्ति भारतीय जैव संसाधन पर शोध एवं व्यापार कर सकता है।
*राज्य जैव-विविधता बोर्ड की नियामक शक्तियों का खात्मा* : भारतीयों द्वारा कोई भी जैव-संसाधन पर सर्वे या उपयोग या व्यापारिक कार्य करने के पहले राज्य बोर्ड को पूर्व सूचना देना आवश्यक था, जिस पर बोर्ड सहमति या असहमति दे सकती थी, (धारा 22)। यह प्रावधान स्थानीय लोगों – समुदायों, वैदों-हकीमों पर लागू नहीं होता था, (धारा 7)। अब इस प्रावधान को व्यापक कर दिया गया है, जिसके तहत कोई भी दवा कंपनी एवं वनस्पति की खेती करने वाले व्यक्ति को बोर्ड को न पूर्व सूचना देने की ज़रुरत होगी और न लाभांश का बंटवारा करेगी।
*दंड का प्रावधान में शिथिलता* : जैव-विविधता की विनाश के रोकथाम के लिए 2002 के कानून में संज्ञेय अपराध मान्य करते हुए जुडिशल मजिस्ट्रेट कोर्ट के ज़रिये 3 से 5 साल का कारावास तथा क्षतिपूर्त राशि का प्रावधान था, (धारा 58)। प्रस्तावित संशोधन में मजिस्टेरियल कोर्ट को दायरे से हटाकर सरकारी अधिकारी द्वारा निपटारा, कारावास के प्रावधान को हटाना एवं केवल आर्थिक दंड के ज़रिये जैव विविधता की हानि की भरपाई करने के प्रावधान करके जैव संसाधनों के संपूर्ण कारपोरेटीकरण एवं पारंपरिक ज्ञान तथा जैव सम्पदा के विनाश का रोडमैप तैयार कर दिया गया है। यह पेसा, वन अधिकार मान्यता कानून की धारा 5, अंतर्राष्ट्रीय जैव-विविधता कन्वेंशन तथा नागोया प्रोटोकोल का घोर उलंघन है।
ऐसे ही भारतीय वन कानून,1927 एवं पर्यावरण (सरंक्षण ) कानून, 1986 में जो दंड प्रक्रिया पहले निहित थी, उसे सरलता तथा मौद्रिकता (monitize) में सीमित करते हुए संशोधन प्रस्तावित है, ताकि कार्पोरेट का हित साधन हो। लेकिन लोगों की वन एवं वन सम्पदा पर अधिकार को नज़रंदाज़ करते हुए औपनिवेशिक अपराधिक तंत्र को बरकार रखा जायेगा। यह नीति सिर्फ वनों पर नहीं, बल्कि मोदीजी के नेशनल मोनिटाइजेसन पाइपलाइन नीति के बाद अब पंचायत मंत्रालय “वाइब्रेंट ग्रामसभा" के नाम पर हर गाँव की परिसंपत्ति का कैसे मौद्रीकरण किया जायेगा, उसकी योजना बनाने की ज़िम्मेदारी ग्रामसभा को दी गई है।
इसलिए हमारी मांग और संकल्प है कि :
* हर ग्राम में ग्राम सरकार [ स्वयं का विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका] (पेसा, 4 घ ) और
हर जिले में जिला सरकार (पेसा, 4 ण) बनाने के लिए
* छत्तीसगढ़ में लागू सारे कानूनों में संशोधन करते हुए पेसा सम्मत बनाएंगे [पेसा (4) & (5)]
* पारंपरिक न्याय-नेतृत्व के ज़रिए ग्राम न्यायलय एवं जिला न्यायालय का गठन करते हुए सारे असंज्ञेय अपराधों को पारंपरिक न्यायलय के अधीनस्थ करेंगे (पेसा, 4 घ एवं 4 ण)
* ग्राम सभा की सहमति के बिना गांव के सामुदायिक संसाधनों का अधिग्रहण तथा हस्तांतरण वर्जित करेंगे। (पेसा 4 घ एवं वन अधिकार मान्यता कानून धारा 5)
* छत्तीसगढ़ के अनुसूचित क्षेत्र के प्रशासनिक व्यवस्था के लिए "छत्तीसगढ़ अनुसूचित क्षेत्र कानून संहिता" तथा "छत्तीसगढ़ अनुसूचित क्षेत्र पब्लिक सर्विस कमीशन" का गठन करते हुए एक अलग प्रशासनिक कैडर तैयार करेंगे। (नेहरूजी के द्वारा घोषित पंचशील नीति,1952)
* छत्तीसगढ़ भू-राजस्व संहिता में संशोधन कर आंध्रप्रदेश अनुसूचित क्षेत्र भू-हस्तांतरण विनियम अधिनियम ( संशोधित 1970) के तर्ज पर कानून बनाएंगे।
* वन प्रशासन को लोकतांत्रिक करने हेतु तथा आदिवासी और अन्य वन निवासियों के साथ हुए "ऐतिहासिक अन्याय" को सुधारने के लिए लाए गए वन अधिकार मान्यता कानून की रक्षा करते हुए वन सरंक्षण अधिनियम,1980 के संशोधित नियम,2022 ; भारतीय वन अधिनियम,1927 में प्रस्तावित संशोधन ; पर्यावरण (प्रोटेक्शन) अधिनियम,1986 के इको-सेंसिटिव जोन के संबंध में गाइडलाइन्स में प्रस्तावित संशोधन तथा वन्यजीव (सरंक्षण) अधिनियम,1972 की नियमों में किये जा रही संशोधनों को खारिज़ करते हुए इन्हें वन अधिकार मान्यता कानून के सम्मत बनाएंगे।
* अनुसूचित क्षेत्र एवं अनुसूचित जनजाति आयोग द्वारा सन 2004 में दी गयी सिफारिश के आधार पर छत्तीसगड़ के गैर-अनुसूचित क्षेत्र को अनुसूचित करेंगे (अर्थात 1951 की जनगणना के अनुसार जिस गांव में अनुसूचित जनजाति कुल जनसंख्या के 40% या अधिक हो, को आधार मान्य करो)
* अनुसूचित क्षेत्र में सर्व शिक्षा अभियान के तहत शिक्षा प्रणाली को खारिज़ कर स्थानीय समुदायों की भाषा-संस्कृति आधारित परीक्षा प्रणाली के ज़रिए कॉमन स्कूल व्यवस्था को लागू किया जाये। (विद्यालय-पाठ्यक्रम-प्रशिक्षित शिक्षकों)
* अनुसूचित क्षेत्र में संविधान के अनुच्छेद 243 (य ग) का पालन करते हुए सारे गैर-कानूनी नगर पंचायतों /नगर पालिका को भंग करते हुए पेसा कानून के तहत पंचायती व्यवस्था लागू करो।
* संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा घोषित आदिवासी अधिकार घोषणा पत्र के अनुच्छेद 30 का अनुसरण करते हुए छत्तीसगढ़ के अनुसूचित क्षेत्र में सैन्यकरण बंद की जावें।
* लघु वनोपज, खनिज संपदा तथा जैव विविधता का सरंक्षण -संवर्धन-व्यापार में ग्रामीण महिलाओं का सहभाग से ग्रामसभा के नेतृत्व में प्रबंधन हेतु प्रचलित कानून में संशोधन किया जावें।....
....बिजय भाई...
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